गीत
आँख खुली जो देखा
उसको, असल समझता बचपन।
मात पिता भाई
बहिनों के,
जैसा सीखा रहना,
तन ढकने को उसके
हिस्से
का जो ही था पहना,
काम सभी करना है
जो भी
हो आदेश मिले तब,
पहली सीढ़ी यही
समझने
की सबका था कहना,
घर चाहे हो घास-फूस का, महल समझता बचपन।
रिश्ते
नाते अपने और
परायों
को भी जाना,
ऊँच-नीच, निर्धन सेठों की
कद-काठी को जाना,
अच्छे-बुरे दोस्त–दुश्मन की
संगत से दुनिया को,
जब से देखा नहीं समझ में
आया वह पैमाना
माँ की ममता अपनापन ही, सकल
समझता बचपन।
समझा आज कि क्यों संस्कारों
का महत्व होता है,
सीखा, गढ़ा, बनाया जाना
घर गुरुत्व होता है,
परिपाटी के छद्म छलावे
यूँ ही नहीं बने सब,
इनसे ही भविष्य तय होता
जो प्रभुत्व होता है,
यही सत्य होगा जीवन का, अटल
समझता बचपन।
बचपन को जिस साँचे ढाला
ढलता रहता था वह,
कहीं जुगाड़ से कहीं अभाव
में
पलता रहता था वह,
घर की देहरी लाँघी जब जब
भटका था वह अकसर,
स्वप्न भव्य दुनिया के
देखा
करता रहता था वह,
तब पहाड़ सा जीवन था पर, सहल
समझता बचपन।
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