गीतिका
छंद- रूपमाला
मापनी- 2122 2122 2122 21
पदान्त- कर के मित्र
समान्त- अर्म
जीत ले दिल कुछ समयसर कर्म
कर के मित्र।
कुछ कमा ले पुण्य खुलकर धर्म
कर के मित्र।
कर्म ही है जो बनाएगा सदा
भवितव्य,
धर्मपथ पर चल न डिगना शर्म
कर के मित्र।
पथ निखारें और पहुँचाएँ शिखर
पर शीघ्र,
काम कर निश्छल स्वयं को नर्म
कर के मित्र।
रत्न से लोहा न कमतर दृढ़
रहे हर हाल,
रूप कैसा भी बना लो गर्म कर
के मित्र।
भेदना हो गढ़ किसी का ढूँढना
कुछ मर्म,
घाव को हैं काटते मृतचर्म कर
के मित्र।
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