गीतिका
प्रदत्त मापनी- 2212
2212 2212 2212
पदांत- है वहाँँ
समांत- आता
धरती गगन को नित मिलाने
सूर्य लाता है वहाँ।
अभिसार बिन्दू को प्रकाशित कर मिलाता है वहाँ।1।
जब इंद्रधनुषी चूनरी ओढ़े धरा पहुँचे क्षितिज,
नित फैलती है लालिमा नभ पर बिछाता है वहाँ।2।
जग को लुभाता है उदित हो भेद रखता है वहीं,
उग कर क्षितिज से ही उसे जग से छिपाता है वहाँ।3।
जग नित्य क्रम में व्यस्त फुरसत है कहाँ जो जान ले,
सूरज धरा का प्रेम ही ऊर्जा लुटाता है वहाँ।4।
उद्देश्य हो जीवन सँवारे प्रेम है सच्चा यही,
युग से जगत् सूरज के हरदम गीत गाता है वहाँ।5।
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