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गीत
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स्वीकार हो माँँ दण्डवत
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स्वीकार हो माँ दंडवत, आकुल तो एक भक्त है।
लेखनी से लिख सका हूँ, यह भावना अभिव्यक्त है।
स्वीकार हो माँ दंडवत......
तेरा ही शुभाशीष पा, लिखती रही है लेखनी,
तेरे दिशा निर्देश से, निखरती रही है लेखनी,
चिंतन मनन तेरा करूँ, पाता हूँ नित स्फूर्ति सदा,
तेरे स्मरण मात्र से ही, चलती प्रखर है लेखनी
तेरी न हो यदि दृष्टि तो, होती कलम नि:शक्त है
स्वीकार हो माँ दंडवत......
भवबंधनों से तारना, ऐसा मुझको स्वभाव दो
संयमित वाणी से मैं, सत्कर्म ही करता रहूँ,
मत्सर न मोह माया हो, ऐसा मुझको प्रभाव दो।
तुझसे छिपा क्या मातु मन, मेरे वही अब व्यक्त है।
स्वीकार हो दंडवत......
तुझसे ही चलती जगती अरु सदैव चले सृष्टि है
होती रहती वसुंधरा पर सदैव प्रेम वृष्टि है
स्नेह, अनुराग और प्रेम का सागर तेरा स्वरूप,
तुझसे धरा यह स्वर्ग है, यह तेरी कृपा दृष्टि है
‘आकुल’ तेरी सेवा में, इसलिए ही अनुरक्त है
स्वीकार हो माँ दंडवत......
करता रहूँ मैं साधना, बस नित्य मुझको बुद्धि दो
आराधना करूँ में मन, वचन से मुझको शुद्धि दो
माँ देना धार लेखनी को काम आ सकूँ सदैव,
गाता रहूँ महिमा सदा, है प्रार्थना समृद्धि दो।
भजता तुम्हें ‘आकुल’ मिले, जब भी जहाँ भी वक्त है।
स्वीकार हो माँ दंडवत......
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