गीतिका
छन्द आल्ह
पदांत- 0
समांत– ऊर
बेटी हो, नारी हो या हो, बाल, श्रमिक बंधा मजदूर।
गाँव शहर ढाणी में ढूँढो, शायद मिले नशे में चूर।
इसी दासता की बेड़ी ने, रोका है हमको हर वक्त,
रही सदा हर दम है दिल्ली, भय के ही साये में दूर।
तीन तलाक, नीरजा से भी, बन न सके हम यदि चैतन्य,
फिर लुटते दिख जाएगी हर, मोड़ निर्भया इक मजबूर।
शिक्षा से घर-घर में फैले, जीने की भी बदले सोच,
अब न कहीं फलने पाएँ, कुप्रथाएँ अंधे दस्तूर।
हरे-भरे खलिहान खेत हों, धरती की बदले तकदीर,
अभयारण्य बढ़ें हों दुगुनी, प्रकृति सम्दाएँ भरपूर।
जाग्रति तब आएगी जब हर, प्राणी बनता दिखे समर्थ,
जीवन अब संघर्ष नहीं हो,चमके अब वह दूर-सुदूर।
चलो आज संकल्प करें हम, नए साल में हो यह सोच,
होगा तब उत्थान राष्ट्र का, हो ‘श्रमेव जयते’ मशहूर।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें