छंद- चौपाई
पदांत- है
समांत- आई
मनहर ऋतु बसंत आई है, चली पवन भी सरसाई है।
भेजा है सौरभ निसर्ग ने, ली मौसम ने अँगड़ाई है।
नई कोंपलें डाल डाल पर, पंछी उड़ते नभ विशाल पर,
सरसों के खेतों ने पहनी, पीत चुनरिया लहराई है।
खेत मुस्कुराए सरसों के, कृषक मुस्कुराए बरसों के,
पवन चली सौरभ अब हरसू, भुनगों में मस्ती छाई है।
हर कलियों के तन गदराए, यौवन पा कर वह इतराए,
करने लगे भ्रमर गुंजारें, कोयल कहीं गुनगुनाई है।
रोकें पेड़ों पर अब घातें, बिछें न कोई चाल बिसातें,
धरती ने सिंगार किया है, देखो महकी अमरार्इ् है।
होली में मलते रँग छलिया, ध्रुपद धामार चंग ढप रसिया,
कहीं चुहल छल हँसी ठिठोली, थोड़ी सी यह हरजाई है।
ऋतुएँ स्वाभिमान ना छोड़ें, कभी न अपनी हद को तोड़ें,
प्रकृति सभी को देती मौका, सबकी करती भरपाई है ।
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